सज्जन सिंह बुनियादी स्कूल में पढ़ाते थे। बच्चों ने उनका नाम दुर्जन सिंह रखा हुआ था। ऐसा कम ही होता था जब वह आसान सवाल पूछते थे। शाबासी देने पर वह बच्चों को
इनाम जरूर देते थे। किसी को छिलनी तो किसी को मिटनी मिलती थी। बहुत खुश हुए तो इनाम में वह एक पेन्सिल दे दिया करते थे। आज भी तो यही हुआ था। 'हूँ तो। एक साल
में कितने सप्ताह होते है?' मास्टर जी ने पूछा। 'गुरुजी बावन।' राजेश ने तपाक से जवाब दिया।
'शाबास। ये ले। एक पेन्सिल। हूँ तो ये तुझे इनाम में दी जाती है।' मास्टर जी ने जेब से एक पेन्सिल हवा में उछाल दी। एक दिन की बात है। मास्टर जी गुस्से में
तमतमाए हुए थे। कक्षा में घुसते ही बोले - 'चार आदमी एक खेत को दो दिन में खोद डालते हैं। एक आदमी उसी खेत को कितने दिन में खोद सकेगा?'
सवाल बच्चों को कठिन लगा था। सभी बच्चों के होंठ बुदबुदाए। लेकिन डर के मारे किसी ने हाथ नहीं उठाया। कक्षा में घोर सन्नाटा छा गया। 'अरी। फुलमतिया की छोकरी।
जसुमति। हूँ तो। बता। तूझे शाबासी नहीं चाहिए?'
मास्टर जी ने मेज पर रखा डंडा हाथ में उठा लिया। जसुमति सिर झुकाए अपनी जगह पर खड़ी हो गई।
'हूँ तो। जिसे जवाब नहीं पता वो खड़ा हो जाए।' मास्टर जी ने डंडा हवा में लहराते हुए कहा। सब बच्चे खड़े हो गए। जसुमति का तो डर के मारे हाल बुरा हो गया। 'हूँ तो।
ये बात है। कोई बात नहीं। सभी को गंगाराम का प्रसाद मिलेगा।' सज्जन सिंह ने कहा।
मास्टर सज्जन सिंह डंडे को 'गंगाराम' कहते थे। बस फिर क्या था। मास्टर जी ने एक-एक बच्चे की दोनों हथेलियों में चार-चार डंडे बरसा दिए। बच्चे दर्द से कराह उठे।
कक्षा में सी-सी की आवाज गूँजने लगी। मास्टर जी सवाल का जवाब श्यामपट्ट पर लिखने लगे। कक्षा में सन्नाटा छाया हुआ था। जवाब उतारने के बाद मास्टर जी बच्चों से
बोले - 'हूँ तो। उतारो फटाफट इसे। वो भी चुपचाप।'
यह कहकर मास्टर जी आँगन की कुर्सी में जाकर पसर गए। मास्टर जी बात-बात पे 'हूँ तो' का इस्तेमाल जरूर करते। यह उनका तकिया कलाम था। बच्चों ने कभी मास्टर जी को
हँसते हुए नहीं देखा था। वे अपनी मूँछों को अँगूठे से घुमा-घुमा कर नाक की ओर ले जाते थे। मगर मूँछें थीं कि बार-बार नीचे की ओर चली आतीं। खाली वक्त पर मास्टर
जी या तो मूँछों पर ताव देते रहते या तर्जनी और अँगूठे की मदद से नाक के बाल उखाड़ते रहते थे।
जसुमति की तरह कई बच्चे ऐसे थे जो मास्टर जी के बीमार पड़ने की दुआ करते। लेकिन मास्टर जी थे कि रोजाना स्कूल आते। अलबत्ता हर माह जिला की बैठक में मास्टर जी
जरूर जाते। इस बैठक का सभी बच्चों को बेसब्री से इंतजार रहता। स्कूल में एक शिक्षिका भी थी। वह मास्टर जी की सहायिका थी। वह भी उन से उतना ही डरती थी जितना
बच्चे। उस दिन स्कूल में बच्चे शिक्षिका के साथ खूब मस्ती करते। बाल सभा होती। आँगन में आग जला कर खीर पकाई जाती। बच्चे घर जाकर खीर खाने की बात बताते तो
अभिभावक अनुमान लगा लेते की मास्टर जी जिला की बैठक में गए हैं।
एक दिन तो हद ही हो गई। मास्टर जी ने जसुमति को खड़ा होने के लिए कहा। कहने लगे - 'क्यों री काली। पढ़ कर क्या करेगी? तेरा बाप तो घड़े ही बनाएगा। तुझे भी किसी घड़े
वाले के साथ बांध देगा। चल फुलवारी में पानी दे।'
जसुमति ने राहत की साँस ली। उसे मनचाहा काम मिल गया था। चलो आज कक्षा में पड़ने वाली मार से तो बचूँगी। वह यह सोचकर पौधों को पानी देने लगी। मास्टर
जी भी जसुमति के पीछे-पीछे चले आए। जसुमति ने एक-एक कर सभी पौधे पर पानी डाला। पसीना पोंछने के बाद वह अपने हाथ-मुँह धोने लगी।
मास्टर जी पीछे से चिल्लाते हुए जसुमति से बोले - 'अरी काली-कलूटी। हाथ-मुँह क्या धोती है। तेरा कोयले जैसा रंग कौन सा गोरा हो जाएगा। चल भाग यहाँ से।' यह कहते
ही उन्होंने जसुमति की पीठ पर डंडा दे मारा। जसुमति की चीख निकल गई। वह दौड़ कर अपनी कक्षा में भागी। मास्टर जी आए दिन बच्चों के सिर पर सवार रहते। स्कूल जाते
हुए बच्चों के चेहरों में डर साफ दिखाई देता था। यह डर छुट्टी का घंटा बजने तक कायम रहता।
'आज मेरी पिटाई होगी। पिटाई से बचने के लिए कह दूँगी कि कल मुझे बुखार था।' जसुमति यह सोचते हुए डरते-डरते स्कूल पहुँची। मास्टर जी जैसे उसी का इंतजार कर रहे
थे। देखते ही बोले - 'हूँ तो। क्यों री कल्लो। कल कहाँ थी? हाथ इधर बढ़ा।'
'मास्टर जी। कल मुझे जोर का बुखार था।' जसुमति ने अपने दोनों हाथ पीठ के पीछे छिपा लिए। 'हूँ तो। अभी ये गंगाराम तेरा बुखार उतार देगा।'
जसुमति को मास्टर जी तब तक पीटते रहे, जब तक वे थक नहीं गए। जसुमति जमीन पर गिर पड़ी। शिक्षिका जसुमति को उठा कर दूसरी कक्षा में ले गई। जसुमति सिसकते हुए
शिक्षिका से बोली - 'मैडम जी। मास्टर जी मुझे ही क्यों पीटते हैं?' शिक्षिका ने जसुमति के आँसू पोंछते हुए कहा - 'वो तो सभी को ऐसे ही पीटते हैं। तुम तो पढ़ाई पर
मन लगाओ। बस। अब चुप हो जाओ।'
शिक्षिका के छूने मात्रा से जसुमति की जैसे सारी पीड़ा मानो दूर हो गई। वह उठी और फिर अपनी कक्षा में चली गई। ऐसा कई बार हुआ जब मास्टर जी ने किसी बच्चे को पीटा
तो शिक्षिका ही बीच-बचाव कर बच्चे को छुड़ा कर ले जाती। कई बार तो बच्चे भाग कर शिक्षिका के पीछे छिप जाते। 'हूँ तो। क्या सूरज पूरब से उगता है?' एक दिन मास्टर
जी ने डंडा लहराते हुए बच्चों से पूछा।
कक्षा का मॉनीटर अतुल बोला - 'गुरुजी। सूरज पूरब से उगता है। फिर वो चलते-चलते पच्छिम में छिप जाता है।'
मास्टर जी ने बच्चों से पूछा - 'क्या अतुल सही कह रहा है?'
जसुमति को छोड़कर सभी बच्चों ने हाथ खड़ा कर हाँ में इशारा किया। जसुमति को सिर झुकाए देख मास्टर जी बोले - 'हूँ तो कलुवी। तेरी क्या राय है? बोल।'
जसुमति खड़ी हो गई। सब बच्चों को देखते हुए बोली - 'सूरज एक जगह पर टिका हुआ है। धरती ही घूमती है। आपने एक बार बताया था।'
जसुमति ऐसा जवाब देगी। मास्टर जी हैरान हो गए। उनका गंगाराम हवा में ही अटक गया। वह जहाँ खड़े थे, खड़े ही रह गए। कक्षा में थोड़ी देर खामोशी छा गई। मास्टर जी
जसुमति की ओर बढ़ने लगे। जसुमति डर से सिमटने लगी तो बच्चे हँसने लगे।
'अरे वाह! कलुवी तो भेजा भी रखती है। सही जवाब है।' मास्टर जी ने जसुमति की आँखों में घूरते हुए कहा।
'अब एक काम कर। इन सब के गालों पर दो-दो तमाचे मार दे। कस के।' मास्टर जी ने जसुमति से कहा। जसुमति सोच में पड़ गई। कुछ तो मेरे दोस्त हैं। जो बड़े हैं वे छुट्टी
के बाद मुझे स्कूल के बाहर पीटेंगे। मैं कैसे इनके थप्पड़ मार सकती हूँ? जसुमति ने सोचा। 'गुरु जी। नहीं।' जसुमति ने न में सिर हिलाते हुए थप्पड़ मारने से मना कर
दिया। 'हूँ तो। तू इनके चाँटा नहीं लगा सकती तो आ जा। मैं तूझे चाँटा लगाना सिखाता हूँ।' मास्टर जी ने इतना कहा और तडा-तड़ एक के बाद एक थप्पड़ जसुमति के गाल पर
रसीद दिए।
जसुमति धड़ाम से नीचे गिर पड़ी। रोते-रोते इतना ही कह पाई - 'गुरुजी। कोई और सही जवाब देता है तो उसे इनाम देते हो। मैंने सही जवाब दिया तो मुझे थप्पड़।' मास्टर जी
ने सुना तो उनका हाथ हवा में रुक गया। कक्षा में सन्नाटा छा गया। जसुमति की आँखों में आँसू टपक पड़े। मास्टर जी उठे और जसुमति को दोनों हाथों से उठा लिया। जसुमति
ने मास्टर जी की आँखों में झाँका। मास्टर जी की आँखें भी गीली हो गई थीं। जसुमति को आज पहली बार मास्टर जी की आँखों में झाँकने से डर नहीं लग रहा था। मास्टर जी
ने आँखें बंद कर लीं। उन्होंने जसुमति को धीरे से बिठाया और आँगन में जाकर बैठ गए।